इम्पैक्ट स्केलिंग: काम का प्रभाव बढ़ाने की एक कुंजी
क्या एक गैर-लाभकारी संस्था वाकई लाखों लोगों तक पहुंच सकती है? भारत में गैर-लाभकारी संस्थाओं को अक्सर छोटे पैमाने पर काम करने वाली और अनुदानों (ग्रांट) पर निर्भर इकाइयों के रूप में देखा जाता है। यानी ऐसी संस्थाएं, जो जनमानस की जरूरतों की गति या उनके स्तर से मेल नहीं खा पातीं। लेकिन चेंज इंजन की एक नई रिपोर्ट इस सामान्य धारणा को चुनौती देते हुए एक अलग नजरिया पेश करती है। ‘द प्लेबुक फॉर नॉन-प्रॉफिट यूनिकॉर्न्स’ शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में, 33 उच्च-प्रभावी (हाई-इम्पैक्ट) संस्थाओं का गहन अध्ययन कर यह समझने की कोशिश की गयी है कि कैसे कुछ गैर-लाभकारी संस्थाओं ने “जन-स्तरीय प्रभाव” (पॉपुलेशन-लेवल इंपैक्ट) हासिल किया। इससे आशय है कम-से-कम दस लाख लोगों या किसी विशेष समस्या से प्रभावित आबादी के पांच प्रतिशत हिस्से तक पहुंचना।
जहां तकनीकी स्टार्ट-अप्स के लिए अनेक ‘प्लेबुक्स’, यानी मार्गदर्शिकाएं मौजूद हैं, वहीं सामाजिक सरोकारों से प्रेरित संस्थाओं, जो जटिल समस्याओं से जूझ रही हैं, के लिए ऐसे कोई संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। यह रिपोर्ट इस खाई को पाटने का प्रयास करती है। इसका उद्देश्य है संस्थापकों, फंडर, मेंटर और अन्य सहयोगियों को ऐसे व्यावहारिक और आंकड़ों पर आधारित सुझाव देना, जो गैर-लाभकारी संस्थाओं के काम को अधिक प्रभावी बना पायें। यह कोई आदर्श सूची नहीं है। यह केवल उन रणनीतियों की रूपरेखा को सामने रखती है, जो जमीनी अनुभवों से निकली हैं। ऐसी रणनीतियां, जिन्होंने संगठनों को विभिन्न क्षेत्रों, प्रणालियों और भौगोलिक स्थितियों में अपने काम को विस्तार देने में मदद की है।
इस प्रभाव का श्रेय किसे जाता है?
इन संगठनों के संस्थापक पारंपरिक छवि से काफी अलग नजर आते हैं। ये न तो वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं, न ही दशकों से काम कर रहे सामाजिक क्षेत्र के दिग्गज। रिपोर्ट के अनुसार, इन संस्थापकों की औसत आयु 35 वर्ष है और लगभग 48 प्रतिशत संस्थाएं केवल एक अकेले व्यक्ति द्वारा शुरू की गयी थीं। अधिकांश संस्थापक या तो कॉर्पोरेट जगत का अनुभव रखते हैं या फिर विकास सेक्टर का। 43 प्रतिशत के पास इन दोनों कार्यक्षेत्रों का मिला-जुला अनुभव है। यह तथ्य इस आम धारणा को चुनौती देता है कि व्यापक स्तर का सामाजिक प्रभाव सिर्फ अनुभव और वरिष्ठता के बूते ही संभव है।
युवा नेतृत्व यह साबित कर रहा है कि नए विचार, जोखिम उठाने की क्षमता और लचीली कार्यशैली जैसे पहलू सामाजिक बदलाव के सशक्त साधन बन सकते हैं। इसके अलावा, कॉर्पोरेट अनुभव के चलते कई संस्थापकों की रणनीतिक समझ उन्हें जटिल प्रणालियों को देखने, प्रभावी ढंग से कार्यान्वयन करने और हितधारकों से संवाद स्थापित करने में सक्षम बनाती है। उनकी यह क्षमता बड़े स्तर पर प्रभावशाली पहलों को आकार देने में बेहद उपयोगी साबित हुई है।
इस पूरी चर्चा में संस्थापकों का दृष्टिकोण सबसे अहम है। यानी केवल उनकी औपचारिक योग्यता नहीं, बल्कि उनकी विषयवस्तु की गहन समझ, रणनीतिक सोच और सीमित संसाधनों का कुशल उपयोग। कई संस्थापकों ने शुरुआती चरणों में ही परामर्श समितियों का गठन किया, ताकि उनकी संस्था को विशेषज्ञता की कमी न हो। उन्होंने अपनी संस्था की बाहरी पहचान बनाने से पहले आंतरिक क्षमताओं को मजबूत करने में निवेश किया।
प्रभाव को विस्तार देने के तीन प्रमुख उपाय
रिपोर्ट में तीन ऐसे प्रमुख उपायों की पहचान की गयी है, जिनके माध्यम से गैर-लाभकारी संस्थाएं अपने काम का दायरा और प्रभाव दोनों बढ़ा पाती हैं: सरकार के साथ साझेदारी, समुदायों की भागीदारी और बाजार-आधारित संसाधनों का उपयोग। इन उपायों को रिपोर्ट ने एक ढांचे के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसे एपिक (ईपीआईसी) फ्रेमवर्क कहा गया है।
प्रमाण (एविडेंस): एक प्रभावी हस्तक्षेप की शुरुआत उस समस्या को गहराई से समझने से होती है, जिसे सुलझाने का प्रयास किया जा रहा हो। इस उद्देश्य से, संस्थाओं ने आंकड़ों और शोध के जरिए किसी मुद्दे की स्पष्ट समझ बनायी और यह आकलन किया कि उनके प्रयास कितने असरदार हैं। इसमें सर्वेक्षण, मूल्यांकन, साक्षात्कार और स्वतंत्र एजेंसियों द्वारा की गयी समीक्षा शामिल रही है। जैसे कि पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च भारत की संसद से जुड़े कामकाज का डेटा नियमित रूप से साझा करता है। वहीं एएसईआर सेंटर के शिक्षण परिणाम सर्वे देशभर में स्कूलों और नीति-निर्माताओं के लिए उपयोगी रहे हैं।
इस तरह का डेटा साझा करने से संस्थाओं को सरकारी अधिकारियों, समुदायों और फंडिंग संस्थानों का भरोसा हासिल करने में मदद मिली। एक और जरूरी पहलू ये है कि समस्या को मापने के कारण वे मुद्दे से जुड़े स्पष्ट आंकड़े भी समझ पाये, जिससे उन्हें एक स्पष्ट दिशा तय करने में भी सहायता मिली। नतीजतन, वे उस मुद्दे को उभारने में सफल रहे, जिससे उनके लिए तमाम हितधारकों और संसाधनों को जुटाने के साथ-साथ लंबे समय तक नजर में बने रहना भी मुमकिन हो सका।
सार्वजनिक संसाधन (पब्लिक गुड्स): इसके तहत ऐसे टूल, ढांचे और डिजिटल/भौतिक मंचों को विकसित किया जाता है, जिन्हें सभी लोग स्वतंत्र रूप से उपयोग कर सकें। कई संस्थाओं ने इस दिशा में काम करते हुए ऐसे संसाधन तैयार किए हैं, जो पूरे सामाजिक क्षेत्र के लिए उपयोगी साबित हुए। उदाहरण के लिए, जनाग्रह ने ऐसी कुंजियां तैयार की, जिनकी मदद से आम नागरिक शहरी प्रशासन को बेहतर समझ सके और उसमें भाग ले सके।
बदलाव के लिए हस्तक्षेप (इंटरवेंशन फॉर चेंज): यह तरीका सेवाओं या कार्यक्रमों के माध्यम से सीधे हस्तक्षेप को दर्शाता है। जहां कुछ संस्थाओं ने शोध और टूल पर ध्यान दिया, वहीं अन्य ने सीधे समुदायों के साथ जुड़कर समस्याओं की जड़ पर काम करने वाले कार्यक्रम विकसित और संचालित किए। उदाहरण के लिए, एजुकेट गर्ल्स ने दूर-दराज के गांवों में बालिकाओं को स्कूल में वापस लाने के मुद्दे पर काम किया है। स्नेहा ने कम आय वाली बस्तियों में महिलाओं और बच्चों को स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ने पर काम किया है। इन संस्थाओं ने अक्सर सरकारी ढांचों के साथ काम करते हुए ऐसे मॉडल विकसित किए, जो प्रयोगात्मक थे। उन्हें परीक्षण के बाद सुधारा गया और अंत में बड़े स्तर पर लागू किया गया।

उक्त तीनों उपायों में से, यह तीसरा तरीका अमूमन सबसे जटिल माना जाता है। जो संस्थाएं इसमें सफल रही, उन्होंने केवल अपने संगठन का विस्तार नहीं किया, बल्कि सही तरीकों की पहचान भी की है। जैसे कि, सरकारी प्रणाली में समाहित हो जाना, समुदाय-आधारित कार्यान्वयन को बढ़ावा देना या बाजार के जरिए बेहतर पहुंच सुनिश्चित करना। इन प्रयासों ने उन्हें फिलांथ्रॉपिक फंडिंग और संगठनात्मक विस्तार से बढ़कर कुछ नया सोचने में मदद की।
इन सभी उपायों की नींव एक मजबूत साक्ष्य आधारित और पारस्परिक बुनियादी ढांचे में निहित है, जो प्रभाव के विस्तार को संभव बनाते हैं। यह रिपोर्ट दर्शाती है कि कैसे विभिन्न संगठनों ने न केवल अपने काम को दिशा देने के लिए, बल्कि उसकी पहुंच को व्यापक स्तर तक बढ़ाने के लिए भी आंकड़ों और सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग किया।
साक्ष्य और सार्वजनिक संसाधनों की भूमिका
विभिन्न प्रकार की गैर-लाभकारी संस्थाओं में, साक्ष्य (एविडेंस) तैयार करना और साझा करना उनके काम का एक नियमित और अनिवार्य हिस्सा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, 80 प्रतिशत संस्थाओं ने शोध आधारित सामग्री प्रकाशित की। लगभग 60 प्रतिशत ने साल में कम से कम तीन बार इसका प्रकाशन किया। आधे से अधिक संगठनों के कामों का उल्लेख सरकारी दस्तावेजों, रिपोर्टों या चर्चाओं में हुआ।
इन संगठनों ने अपने कार्य को सशक्त बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के डेटा, यानी आंकड़ों और सूचनाओं का सहारा लिया।
- प्राथमिक डेटा: इस श्रेणी में समुदाय के सदस्यों के साथ किए गए सर्वेक्षण, फोकस समूह चर्चाएं और मौजूदा कार्यक्रमों का मूल्यांकन शामिल था। इससे संस्थाओं को यह समझने में मदद मिली कि उनके प्रयास कहां असरदार साबित हो रहे हैं और किन क्षेत्रों में बदलाव की आवश्यकता है।
- माध्यमिक डेटा: संस्थाओं ने सार्वजनिक डेटासेट, जनगणना के आंकड़े और अन्य शोध संस्थानों द्वारा प्रकाशित रिपोर्टों का भी उपयोग किया। इससे वे न केवल अपने निष्कर्षों को मजबूती दे सके, बल्कि अपने प्रस्तावों और सिफारिशों को भी अधिक सशक्त और साक्ष्य-आधारित बना पाए।
कुछ संस्थाएं पूरी तरह से डेटा और शोध पर केंद्रित रहीं। उदाहरण के लिए, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी ने ऐसे कानूनी अध्ययन और सिफारिशें तैयार की, जिन्हें सरकारी मंत्रालयों और समितियों द्वारा उपयोग में लाया गया। इसी तरह, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने राजनीतिक प्रत्याशियों और चुनावी व्यय पर डेटा प्रकाशित किया, जो बाद में नीतिगत और न्यायिक निर्णयों में सहायक सिद्ध हुआ।
साथ ही, 75 प्रतिशत से अधिक संस्थाओं ने शोध-प्रकाशन के अलावा सार्वजनिक संसाधन भी विकसित किए। यानी ऐसे संसाधन और सामग्री, जिन्हें कोई भी स्वतंत्र रूप से इस्तेमाल, पुनरुत्पादित या अनुकूलित कर सकता है। इनमें डिजिटल टूल्स, हैंडबुक्स, डेटासेट्स और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म शामिल थे। उदाहरण के लिए, अगामी ने ओपन एनवायएआई (ओपन न्याय) नामक एक मंच विकसित किया, जो कानूनी सेवाओं के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) आधारित मदद मुहैया कराता है।
युवा नेतृत्व यह साबित कर रहा है कि नए विचार, जोखिम उठाने की क्षमता और लचीली कार्यशैली जैसे पहलू सामाजिक बदलाव के सशक्त साधन बन सकते हैं।
विश्वसनीय और सुलभ साक्ष्य के अलावा मुक्त-स्रोत टूल्स और मंचों जैसे सार्वजनिक संसाधन तैयार कर संस्थाएं न केवल नीति-निर्माण को प्रभावित कर सकीं, बल्कि दूसरों को भी अपने काम से सीखने का मौका देकर आगे बढ़ने में सक्षम बना सकी हैं। इससे उनके काम में दोहराव में भी कमी आई और उसका प्रभाव उनके प्रत्यक्ष कार्यक्षेत्र से कहीं आगे तक फैला।
रिपोर्ट में जिन अधिकांश संस्थाओं का अध्ययन किया गया, जैसे पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च, अरविंद आई केयर, कोरो और एजुकेट गर्ल्स, वे अपनी कार्यशैली में इन तीनों उपायों का मिश्रण अपनाती हैं। ये संस्थाएं स्वास्थ्य, शिक्षा और कानूनी सुधार जैसे विविध क्षेत्रों में कार्यरत हैं, जहां ये काम के प्रभाव को बढ़ाने से जुड़ी चुनौतियों से निपटने के अलग-अलग तरीके सुझाती हैं।
इन रणनीतिक उपायों को व्यवहार में कैसे लागू किया गया, इसे समझने के लिए रिपोर्ट यह विश्लेषण करती है कि संस्थाओं ने किस प्रकार से सरकारी साझेदारियों, समुदाय-आधारित कार्यान्वयन और बाजार आधारित मॉडलों के माध्यम से अपने काम का विस्तार किया है।
1. सरकारी साझेदारी के माध्यम से विस्तार
रिपोर्ट का एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि जन-स्तरीय प्रभाव (पॉपुलेशन-लेवल इंपैक्ट) के लिए सरकार के साथ साझेदारी न केवल अहम है, बल्कि अनिवार्य भी है। इसके लिए जिन 33 संस्थाओं का अध्ययन किया गया, उनमें से 80 प्रतिशत ने किसी न किसी रूप में सरकार के साथ काम किया था। इनमें से 61 प्रतिशत संस्थाएं सरकारी साझेदारी को अपनाने का निर्णय लेने के मात्र 18 महीनों के भीतर इस साझेदारी को स्थापित करने में सफल रही। एक और दिलचस्प बात यह सामने आयी कि 42 प्रतिशत संस्थाओं को कोल्ड आउटरीच, यानी किसी पूर्व संपर्क या सिफारिश के बिना सीधा सरकारी अधिकारियों से संवाद स्थापित करने में सफलता मिली। यह उस आम धारणा को चुनौती देता है कि सरकारी सहयोग पाने के लिए कोई भीतरी जुगाड़ या जान-पहचान होना आवश्यक होता है।
रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि गैर-लाभकारी संस्थाएं आमतौर पर तीन प्रमुख तरीकों से राज्य (सरकार) के साथ साझेदारी करती हैं:
- नीतिगत सुधार: इसका उद्देश्य कानूनों या नीतियों में बदलाव या सुधार लाना होता है। उदाहरण के लिए, पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च ने सांसदों के साथ मिलकर विधायी प्रक्रिया को सशक्त बनाने का काम किया।
- तकनीकी परामर्श: इसमें सरकारी कार्यक्रमों के डिजाइन, प्रशिक्षण और निगरानी में तकनीकी सहायता प्रदान की जाती है। उदाहरण के लिए, सेव लाइफ फाउंडेशन ने गुड समैरिटन कानून के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। यह कानून सड़क दुर्घटना पीड़ितों की सहायता करने वाले नागरिकों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है।
- क्रियान्वयन सहयोग: इसमें सार्वजनिक प्रणालियों के माध्यम से सेवाओं का वितरण शामिल होता है। उदाहरण के लिए, रॉकेट लर्निंग आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से प्रारंभिक बाल शिक्षा प्रदान करता है।
अक्सर संस्थाएं किसी एक काम से शुरुआत करती हैं और समय के साथ अपने दायरे का विस्तार करती हैं। कई संस्थाएं नीचे से ऊपर की ओर (बॉटम-अप अप्रोच) की रणनीति अपनाती हैं। यानी वे पहले सीमित क्षेत्रों में अपने उपाय का परीक्षण करती हैं और फिर अपने सफल तरीकों को सरकारी तंत्र के माध्यम से व्यापक स्तर पर लागू करने की दिशा में आगे बढ़ती हैं।
2. समुदाय-आधारित नेतृत्व के माध्यम से विस्तार
एक अन्य प्रमुख उपाय है समुदायों की भागीदारी। यहां पर जिन संस्थाओं का अध्ययन किया गया, उनमें से 57 प्रतिशत ने समुदाय-आधारित रणनीति को अपनी मुख्य कार्यप्रणाली के रूप में अपनाया था। यह केवल जागरूकता फैलाने तक सीमित नहीं था, बल्कि इन संस्थाओं ने समुदायों को अपने काम में सह-निर्माता, कार्यान्वयनकर्ता और लीडर के रूप में भी शामिल किया।
वॉलंटियर या सामुदायिक चैंपियन आम तौर पर 50 से 300 परिवारों के साथ काम करते हैं। वे कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए एक विश्वसनीय, सस्ता और स्थानीय उपाय मुहैया कराते हैं। उदाहरण के लिए:
- एजुकेट गर्ल्स कुल 18,000 टीम बालिका वॉलंटियर को समर्थन प्रदान करता है, जिनमें से मात्र 3,000 वेतनभोगी कर्मचारी हैं।
- स्नेहा 450 कर्मचारियों के साथ 6,000 सामुदायिक चैंपियनों के माध्यम से शहरी हाशिये पर बसे परिवारों तक पहुंच सुनिश्चित करता है।
- कोरो जमीनी स्तर पर काम करने वाले फेलोज को समर्थन देता है, जो आगे चलकर अपने स्वयं के कार्यक्रम शुरू करते हैं। जैसे, एक प्रमुख नेटवर्क, जिसका नाम एकल महिला संगठन है, अब 19,000 एकल महिलाओं का समूह है, जो भूमि अधिकारों और सरकारी योजनाओं की मांग को लेकर आवाज उठाती हैं।
समुदाय के सदस्यों के लिए इन मॉडलों में भागीदारी की प्रेरणा केवल आर्थिक लाभ नहीं होती। इसके पीछे मुख्य कारण होते हैं—स्थानीय स्तर पर अपनी पहचान मजबूत होना, सीखने के अवसर और स्वामित्व की भावना। कई मामलों में यह तक पाया गया कि वित्तीय प्रोत्साहन उतना प्रभावी नहीं रहा, जितना कि व्यक्तिगत सहयोग और सार्वजनिक रूप से सराहना। जब लोगों को यह महसूस होता है कि उनका योगदान पहचाना और सराहा जा रहा है, तो वे अधिक गहराई और प्रतिबद्धता से आपके साथ जुड़ते हैं।
3. बाजार के माध्यम से विस्तार
कुछ चुनिंदा गैर-लाभकारी संस्थाओं के लिए किसी सामाजिक समस्या का समाधान करने का अर्थ था—एक नए बाजार का निर्माण करना। अरविंद आई केयर और सेल्को जैसे सामाजिक उद्यमों ने अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए ऐसे उपयोगकर्ताओं तक गुणवत्तापूर्ण सेवाएं पहुंचाई, जिन तक पारंपरिक व्यवस्था नहीं पहुंच पाती है। उनकी सेवाएं न केवल किफायती थी, बल्कि कम-संसाधन वाले समुदायों की जरूरतों के अनुरूप भी थी।
जन-स्तरीय प्रभाव (पॉपुलेशन-लेवल इंपैक्ट) के लिए सरकार के साथ साझेदारी न केवल अहम है, बल्कि अनिवार्य भी है।
अरविंद आई केयर भारत में मोतियाबिंद की कुल सर्जरियों का लगभग सात प्रतिशत भाग संचालित करता है। इसकी ‘असेंबली-लाइन’ कार्यप्रणाली और समुदाय आधारित सुलभता की रणनीति प्रति सर्जरी की लागत को घटाकर 5000 रुपए से भी कम पर ले आती है। इस मॉडल के तहत जो लोग भुगतान नहीं कर सकते, उन्हें भी सेवाएं मिलती हैं। दूसरी ओर, सेल्को केवल सोलर पैनल नहीं बेचता। वह ऊर्जा से जुड़े इस तरह के समाधान तैयार करता है, जो निम्न-आय वाले परिवारों की खास जरूरतों के अनुरूप हों। इसके साथ ही वह उपभोक्ताओं के लिए वित्तीय विकल्प भी उपलब्ध कराता है, ताकि सेवाएं सुलभ और टिकाऊ बन सकें।
इन दोनों मॉडलों की विशेषता यह है कि ये वित्तीय स्थिरता के साथ-साथ प्रभाव के विस्तार को एक साथ साधते हैं। हालांकि, रिपोर्ट यह चेतावनी भी देती है कि यदि बाजार-आधारित मॉडल को सावधानीपूर्वक डिजाइन न किया जाए, तो इसके चलते सामाजिक या आर्थिक रूप से वंचित समुदायों की अनदेखी हो सकती है।
कार्यक्रमों से आगे: एक समग्र इकोसिस्टम की ओर
यह रिपोर्ट गैर-लाभकारी संस्थाओं को इस दिशा में सोचने के लिए प्रोत्साहित करती है कि प्रभाव के विस्तार (स्केल) के बारे में शुरुआत से ही सोचें—सिर्फ आंकड़ों के रूप में नहीं, बल्कि ऐसे मॉडल के निर्माण के रूप में, जिसे अन्य लोग भी अपनाकर इस्तेमाल कर सकें। इसका अर्थ है कि संस्थाओं को यह स्पष्ट रूप से सोचना चाहिए कि उनके काम का सबसे प्रभावशाली विस्तार किस उपाय से हो सकता है:
क्या वे सीधे कार्यक्रमों के माध्यम से अपना प्रभाव बढ़ायें?
क्या वे सरकारी तंत्र या स्थानीय समुदायों के साथ साझेदारी से अपना प्रभाव बढ़ायें?
क्या वे ऐसे टूल या सार्वजनिक संसाधन विकसित करें, जो अन्य संगठन या संस्थान उपयोग कर सकें?
ऐसे में आंकड़े चाहे प्राथमिक हों या माध्यमिक, उनके आधार पर साक्ष्यों को प्रकाशित करना भी नई साझेदारियों के अवसर प्रदान कर सकता है।
इस प्रक्रिया में फंडर की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। रिपोर्ट बताती है कि किसी संस्था के विकास के पहले दो से तीन वर्ष सबसे निर्णायक होते हैं। इस अवधि में यदि बिना शर्त मिलने वाली पूंजी उपलब्ध हो, तो संस्थाएं खुलकर प्रयोग कर सकती हैं, अपनी रणनीतियों में बदलाव ला सकती हैं और दीर्घकालिक योजनाओं पर ध्यान लगा सकती हैं। अमूमन सिर्फ कार्यक्रम आधारित फंडिंग पर्याप्त नहीं होती। यदि किसी मॉडल को दीर्घकालिक और अपनाये जाने योग्य बनाना है, तो इसके लिए शोध, सार्वजनिक संसाधन और कैपेसिटी बिल्डिंग जैसे क्षेत्रों में भी निवेश जरूरी है।
रिपोर्ट यह संकेत देती है कि इस पूरी प्रक्रिया में सहायक संगठनों, नेटवर्कों और नीतिगत मध्यस्थों सहित व्यापक इकोसिस्टम से जुड़े भागीदारों के लिए यह आवश्यक है कि वे ऐसे मंच विकसित करें, जो सहकर्मी अधिगम (पीयर लर्निंग), अनुकूलन और विभिन्न क्षेत्रों के बीच सहयोग को संभव बना सकें। आज कई गैर-लाभकारी संस्थाएं पहले से ही बड़े स्तर पर काम कर रही हैं, लेकिन उन्हें वह पहचान, संसाधन या रणनीतिक समर्थन नहीं मिल पाता, जिसकी उन्हें अगले चरण में प्रवेश करने के लिए आवश्यकता होती है।
यह रिपोर्ट यह नहीं कहती कि हर संस्था को विस्तार की ओर बढ़ना ही चाहिए। बल्कि, यह दिखाती है कि जो संस्थाएं विस्तार का मार्ग चुनती हैं, उनके लिए यह संभव है। लेकिन इस प्रक्रिया में केवल सलाह या मार्गदर्शन पर्याप्त नहीं है। यह सिर्फ तभी संभव है, जब उन्हें शुरुआत से ही विश्वास, स्पष्ट दिशानिर्देश और समर्थन प्राप्त हो।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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