निशि जनजाति ने धनेश पक्षी का संरक्षण क्यों शुरू कर दिया

अरुणाचल प्रदेश का राजकीय पक्षी धनेश (हॉर्नबिल) इस राज्य के निशि नामक जनजातीय समूह का सांस्कृतिक प्रतीक है। ऐतिहासिक रूप से निशि जनजाति के लोग सिर पर पहनी जाने वाली विशेष प्रकार की टोपी बनाने के लिए इस पक्षी का शिकार कर उसके पंख और चोंच का इस्तेमाल करते थे। भारी संख्या में शिकार के कारण इसकी आबादी ख़तरे में पड़ गई।
पिछले कुछ सालों में राज्य द्वारा धनेश पक्षी के शिकार को रोकने के प्रयासों में इस जनजाति के लोगों को शामिल करने पर ध्यान केंद्रित किया गया। उन्हें अपनी टोपियों में धनेश की चोंच के बदले प्लास्टिक और फ़ाइबरग्लास के उपयोग के लिए प्रोत्साहित किया गया।
इस इलाक़े में 2011 में वन्यजीव संरक्षण पर काम करने वाले एक गांव के बुजुर्ग सदस्यों वाली एक समाजसेवी संस्था और राज्य के वन विभाग ने घोंसला गोद लेने के कार्यक्रम की शुरुआत की। इस कार्यक्रम के तहत निशि समुदाय के सदस्यों को घोंसला संरक्षण और जागरूकता फैलाने वाली गतिविधियों में शामिल किया गया। इस कार्यक्रम के अंतर्गत धनेश पक्षी के घोंसले और उनके रूस्टिंग साइटों पर निगरानी रखने के लिए निशि सदस्यों को घोंसला रक्षक नियुक्त किया जाता है। इस घोंसला रक्षक का चुनाव गांव के प्रधानों के नामांकन के आधार पर किया जाता है। वे अपने गांव के भीतर और आसपास के घोंसलों का पता लगाते हैं और हर पांच-छः दिनों के अंतराल पर उसकी जांच करते हैं और घोंसले के आसपास होने वाली मानवीय गतिविधियों पर भी नज़र बनाए रखते हैं। वे धनेश संरक्षण की ज़रूरत के बारे में दूसरों को भी शिक्षित करते हैं। इस घोंसला संरक्षक को प्रत्येक माह 12,000 रुपए की तनख़्वाह दी जाती है और वहां के स्थानीय कोऑर्डिनेटर को 17,000 रुपया महीना मिलता है। ताजिक तचांग पक्के-केसांग जिला के किसान और पशुपालक हैं। वह इस इलाक़े में घोंसला गोद लेने वाले कार्यक्रम के कोऑर्डिनेटर भी हैं। उनका कहना है कि जहां इस काम के लिए मिलने वाली तनख़्वाह स्थानीय बेरोज़गार लोगों को आर्थिक सहायता देती है वहीं हॉर्नबिल संरक्षण के लिए काम करने की प्रेरणा इस तथ्य से परे है।
बुद्धिराम ताई पक्के-केसांग ज़िला के सेजोसा गांव के गांवबुरा (ग्राम प्रधान) और एक घोंसला संरक्षक हैं। बुधीराम कहते हैं कि “जब हमने यह काम शुरू किया तब हमारे समुदाय के कुछ लोगों को लगा कि हम यह सब पैसों के लिए कर रहे हैं। लेकिन हम लोग यह सब पक्के-केसांग के बच्चों के भविष्य और अरुणाचल के लिए कर रहे हैं।“
स्थानीय लोगों ने अब हॉर्नबिल की उपस्थिति को बढ़ते पर्यटन से जोड़ना शुरू कर दिया है। इस पक्षी के कारण ही प्राकृतिक पर्यटन और होमस्टे के रूप में यहां के लोगों को रोज़गार मिलता है।
बुद्धिराम मानते हैं कि मानव जाति की अज्ञानता के कारण कई स्वदेशी खाद्य पदार्थ और जानवर विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गए। उन्होंने कहा कि “आज जब मैं बच्चों से पूछता हूं कि क्या उन लोगों ने टोको-पत्ता (लुप्तप्राय ताड़ के पेड़ का पत्ता) देखा है तो उनका जवाब नहीं में होता है। कभी तोको के पेड़ यहां भारी संख्या में पाए जाते थे। सरकार हमसे बिना पेड़ों को नुक़सान पहुंचाए पत्ते काटने के लिए कहती थी लेकिन हमने नहीं सुना। यह पत्ता हमारी संस्कृति का प्रतीक था। बिना किसी प्रतीक के हम अपने बच्चों को अपनी संस्कृति के बारे में क्या और कैसे सिखाएंगे? अगर धनेश (हॉर्नबिल) नहीं बचेगा तो हम अपने भावी पीढ़ी को क्या दिखाएंगे?
“मेरे मरने के बाद जब लोग पूछेंगे कि इस गांवबुरा ने क्या किया तो मेरे पीछे मेरा यह काम बोलेगा।”
बुद्धिराम ताई हॉर्नबिल नेस्ट एडॉप्शन प्रोग्राम के साथ घोंसला संरक्षक (नेस्ट प्रोटेक्टर) के रूप में काम करते हैं। ताजिक तचांग हॉर्नबिल नेस्ट एडॉप्शन प्रोग्राम में एक घोंसला रक्षक और स्थानीय समन्वयक है।
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लेखक के बारे में
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बुद्धिराम ताई अरुणाचल प्रदेश में पक्के-केसांग ज़िले के दारलोंग, सेजोसा गांव के गांवबुरा (ग्रामप्रधान) हैं। वह 2011–12 से ही हॉर्नबिल नेस्ट एडॉप्शन प्रोग्राम से जुड़े हैं। वह हर साल हॉर्नबिल घोंसले के पेड़ों और रूस्टिंग साइटों पर टिप्पणियों को ध्यान से नोट करते हैं। बुद्धिराम प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए स्थानीय समुदाय के सदस्यों को संवेदनशील बनाने और प्रेरित करने के काम में भी सक्रिय हैं।
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ताजिक तचांग अरुणाचल प्रदेश में पक्के-केसांग ज़िले के मोबूसो, सेजोसा के निवासी हैं। ताजिक 2013 में एक घोंसला संरक्षक के रूप में हॉर्नबिल नेस्ट एडॉप्शन प्रोग्राम से जुड़े और 2017 में स्थानीय कोऑर्डिनेटर बन गए। साप्ताहिक ऑनलाइन पोर्टल पर स्थानीय लॉजिस्टिक्स के समन्वय और नेस्ट प्रोटेक्टर्स से डेटा अपलोड करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वह स्थानीय स्कूलों के साथ समन्वय करने और पक्के टाइगर रिजर्व के अंदर प्रकृति शिविरों सहित छात्रों के लिए साल भर चलने वाली गतिविधियों के संचालन में भी हिस्सा लेते हैं। इसके लिए वह एनसीएफ के पूर्वी हिमालय कार्यक्रम के प्रकृति शिक्षा कार्यक्रम में अपना योगदान देते हैं।