IDR English

अधिक भाषाएँ

  • मराठी
  • ગુજરાતી
  • বাংলা
लिंग

‘औरतों का काम’: विकास सेक्टर में लैंगिक भेदभाव दिखता नहीं, तो क्या है नहीं?

कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव कई बार दिखाई नहीं देता है, इसलिए इसे पहचानना और इस पर बात करना जितना जरूरी है, उतना ही इसके समाधान के लिए ठोस नीतियां बनाना भी।
तीन महिलाएं काम करते हुए_कार्यस्थल पर लिंगभेद
२९ मई २०२५ को प्रकाशित

विकास सेक्टर में, बीते कुछ सालों में लैंगिक भेदभाव को समझने के लिए, अनियमित ही सही लेकिन प्रयास किए जाते रहे हैं। साल 2015 में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि सेक्टर में काम करने वाले कुल कर्मचारियों में से आधी महिलाएं हैं, लेकिन फिर भी मैनेजमेंट से जुड़ी भूमिकाओं में उनकी हिस्सेदारी सिर्फ 34 प्रतिशत थी। 2016 में देश के बड़े शहरों की संस्थाओं पर किए गए एक अध्ययन के अनुसार महिलाओं पर घर और दफ्तर की ज़िम्मेदारियों का दोहरा भार पाया गया। यह पुरुषों की तुलना में कहीं ज्यादा था।

अगर आपकी संस्था भी कार्यस्थल पर समावेशी माहौल बनाने की कोशिश कर रही है तो हो सकता है कि आपके अनुभव में भी यह बात आई हो। प्रोफेशनल असिस्टेंट फॉर डेवलपमेंट एक्शन, प्रदान संस्था भी, लगभग दस सालों से अपने संगठन के अंदर, लैंगिक असमानताओं को पहचानने और उनमें सुधार लाने के प्रयास कर रही है। हालांकि उनके ज्यादातर कार्यक्रम महिलाओं को संगठित कर उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर करने पर केंद्रित रहे हैं। लेकिन फिर भी संस्था के महिला-पुरुष कर्मचारियों के अनुपात में अब भी असंतुलन बना हुआ है।

साल 2017 में संस्था में 100 पुरुष कर्मचारियों के मुकाबले सिर्फ 71 महिलाएं काम कर रही थीं। समय के साथ, काम छोड़ने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ती गई। खासतौर पर, जब महिलाएं अनुभव और जिम्मेदारियों में आगे बढ़ीं तो यह दर और बढ़ती दिखी। महिलाओं ने संस्थान के भीतर काम के माहौल पर भी सवाल उठाए। उनका मानना था कि पुरुषों और महिलाओं को लेकर बनी सामाजिक धारणाएं उनके कार्य अनुभव को प्रभावित कर रही हैं। उन्होंने बताया इससे न केवल उनके काम पर असर पड़ता है बल्कि साथ काम करने वाले पुरुषों से मिलने वाले सहयोग पर भी महसूस होता है। साथ ही, उन्होंने यह भी बताया कि संस्था में कामों का बंटवारा बराबरी से नहीं होता है।

तीन महिलाएं काम करते हुए_कार्यस्थल पर लिंगभेद
महिलाओं की घर और दफ्तर दोनों की जिम्मेदारियों को भी अनदेखा किया जाता है। | चित्र साभार: प्रदान

अनुभवों से असमानता को समझना

प्रदान संस्था मध्य भारत के आठ राज्यों में आदिवासी समुदायों के साथ काम करती है। यहां कर्मचारी, 5-6 लोगों की छोटी-छोटी टीमों में काम करते हैं और इनके काम की जगहें ज्यादातर दूरदराज इलाकों में होती हैं। महिलाओं ने बताया कि सुरक्षा की चिंता के कारण कई बार उन्हें कुछ जिम्मेदारियां नहीं दी जाती हैं। उदाहरण के लिए, अगर खासतौर पर ऑफिस के समय के बाद कोई काम करना हो तो इस तरह के काम सीधे पुरुषों को दिए जाते रहे हैं। वहीं, महिलाओं को अक्सर पोषण या लैंगिक भूमिका वाले काम ही दिए जाते हैं, मानो वे केवल इसी तरह के कामों को अच्छे से कर सकती हैं।

साल 2014 में संस्था ने यह समझने के लिए एक अध्ययन किया कि महिलाएं अपने काम में किस तरह की दिक्कतों का सामना करती हैं। इसमें सामने आया कि कई बार यह मान लिया जाता है कि जो लोग देर तक काम करते हैं, वही अधिक जिम्मेदार होते है। संस्था में रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करने से जुड़ी जरूरतों को परे रखकर काम जारी रखने की अपेक्षा की जाती है और महिलाओं की घर और दफ्तर दोनों की जिम्मेदारियों को भी अनदेखा किया जाता है।

इन बातों को समझते हुए संस्था ने तीन कदम उठाए:

  1. नए कर्मचारियों को लैंगिक भेदभाव के बारे में समझाने के लिए आरंभिक कोर्स (इंडक्शन) में थोड़ा बदलाव किया।
  2. कर्मचारियों की टीमों में समय-समय पर लैंगिक भेदभाव के मामलों को सामने लाने और इस पर कार्य योजना तैयार करने के लिए जेंडर ऑडिट किए।
  3. महिलाओं के लिए एक वुमन कॉकस (महिलाओं के लिए एक प्लेटफॉर्म) बनाया गया ताकि वे अपने अनुभवों और समस्याओं पर खुलकर बात कर सकें।

इस तरह लैंगिक भेदभाव के खिलाफ एक ठोस तरीका बनाया गया। इसमें हर टीम, अपनी स्थिति को जानती थी और फिर ‘जेंडर एट वर्क’ फ्रेमवर्क के आधार पर आगे की योजना बनाती थी। इस फ्रेमवर्क में व्यक्तिगत जागरूकता, संसाधनों का सही बंटवारा, नियम-कायदे और संस्था के काम करने का तरीका शामिल था।

1. संस्था में बातचीत और सहयोग का माहौल बनाना

महिलाओं द्वारा बताई गई चुनौतियों में प्रमुख रूप से आत्मविश्वास का कम होना, असहायता का भाव और संस्था से उचित समर्थन ना मिलने जैसी बातें शामिल थीं। इससे निपटने के लिए प्रदान ने 2016 में वुमन कॉकस के रूप में एक अनौपचारिक व्यवस्था बनाई जिसमें वे अपने पेशेवर और व्यक्तिगत विषयों पर बात कर सकती थीं। क्षेत्रीय समूहों में इस पहल का समर्थन करने के लिए सात सदस्यों का एक कार्य समूह (वर्किंग ग्रुप) बनाया गया। इसमें किसी विशेष राज्य या क्षेत्र की सभी महिलाएं आमतौर पर हर तीन महीने में एक बार इकट्ठा होती थीं। यह प्लेटफॉर्म महिलाओं के लिए एक ऐसी जगह थी, जहां वे अपने अनुभव और काम से जुड़ी चुनौतियां जैसे फील्ड से जुड़े कार्यों और सुरक्षा या संस्था की नीतियों के बारे में खुलकर बात कर सकती थीं। इन चर्चाओं से साफ हुआ कि निजी और कामकाजी जीवन को पूरी तरह अलग करना संभव नहीं है। अगर घर की जिम्मेदारियां बढ़ें तो उसका असर काम पर पड़ता है, और अगर दफ्तर का काम बढ़े तो वह घरेलू जिंदगी को भी प्रभावित करता है।

2. संस्था के भीतर लैंगिक भेदभाव को समझना

साल 2014 में हुए एक अध्ययन में कुछ पुरुष कर्मचारियों ने महिलाओं को ‘भावुक’, ‘निर्भर’ और ‘अस्थिर’ बताया था। यह बताता है कि कार्यस्थल पर भी समाज की रूढ़िवादी सोच का असर रहता है। महिला कॉकस की शुरूआत पर भी कई लोगों को लगा कि यह केवल महिलाओं के हक में और पुरुषों के खिलाफ है। इस सोच में बदलाव लाने के उद्देश्य से संस्था ने ‘मेन इन जेंडर’ नामक एक पहल की। इसका मकसद ऐसे पुरुषों के समूह तैयार करना था जो महिला कॉकस के साथ जुड़कर स्वेच्छा से संगठन के भीतर लैंगिक समानता जैसे मुद्दों पर संवाद कर सकें। साथ ही यह पहल, पुरुषों और महिलाओं के बीच आपसी समझ बढ़ाने और भेदभाव को कम करने की दिशा में एक प्रयास थी। लेकिन, समय और संसाधनों की कमी की वजह से यह पहल आगे नहीं बढ़ पाई।

3. अनुभव को काम में बदलना

साल 2024 में, प्रदान ने महिला कॉकस से जुड़ी 100 से अधिक महिला कर्मचारियों से एक बार फिर यह जानने के लिए बातचीत की कि यह पहल उनके लिए कितनी उपयोगी और प्रभावशाली रही। अधिकांश महिलाओं ने बताया कि इस प्लेटफॉर्म ने उन्हें आत्मविश्वास दिया और एक ऐसा सुरक्षित वातावरण प्रदान किया, जहां वे खुलकर अपनी बात रख सकीं। उपयोगिता साबित होने के बाद भी इस प्लेटफॉर्म को लेकर संस्था ने यह महसूस किया कि केवल बातचीत काफी नहीं है बल्कि इन चर्चाओं से ठोस नीतियां और बदलाव भी निकलने चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि मुद्दों की जड़ों तक पहुंचा जाए। यह समझा जाए कि इनमें से कौन-सी चुनौतियां संस्था के भीतर मौजूद हैं और फिर उन पर आधारित एक स्पष्ट और प्रभावी बदलाव की योजना तैयार की जाए।

हर क्षेत्रीय महिला कॉकस ने अपने सुझाव क्षेत्रीय मैनेजमेंट को दिए। फिर एक समन्वय टीम (इंटीग्रेशन ग्रुप) इन सभी बातों को मिलाकर संस्था के सीनियर लीडरशिप तक पहुंचाता था। इस प्रक्रिया के बाद यह निर्णय लिया गया कि संस्था में कुछ नई नीतियां लागू की जाएं, जैसे— पीरियड के दौरान अवकाश की सुविधा, महिलाओं को लीडरशिप के पदों पर बढ़ावा देना, कार्य में लचीलापन, दो सप्ताह का पितृत्व अवकाश, गोद लिए गए बच्चे की देखभाल के लिए 12 सप्ताह का अवकाश, तथा गर्भपात की स्थिति में शारीरिक और मानसिक तौर पर आराम का प्रावधान। साथ ही, यह भी देखा गया कि पहले से बनी नीतियों जैसे मातृत्व अवकाश और नियुक्ति प्रक्रिया को कैसे बेहतर किया जा सकता है।

महिला कर्मचारियों का एक समूह चर्चा करते हुए_कार्यस्थल पर लिंगभेद
पितृसत्ता और जातिगत भेदभाव जैसी गहरी सामाजिक सोच अब भी हमारे काम के माहौल को प्रभावित करती है। | चित्र साभार: प्रदान

बराबरी की सोच को बढ़ाना

महिला कॉकस की शुरुआत भले ही धीमी और असंतुलित रही हो, लेकिन इससे कई जरूरी मुद्दे सामने आए। इन्हें समझना और सुलझाना हर संस्था और व्यक्ति के लिहाज से महत्वपूर्ण है। इससे एक जरूरी बात यह समझ आई कि संस्थाओं को लैंगिक संवेदनशीलता के साथ अपनी नीतियां बनानी चाहिए और समय-समय पर उनमें बदलाव करते रहना चाहिए। उदाहरण के लिए, मातृत्व अवकाश को तो जरूरी माना जाता है, लेकिन पितृत्व अवकाश को उतनी अहमियत नहीं दी जाती। इस चर्चा से यह विचार भी सामने आया कि भविष्य में दोनों को बराबर अवकाश मिले ताकि बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी दोनों मिलकर उठा सकें।

इसके साथ ही, संस्थाओं को यह भी समझना होगा कि पितृसत्ता और जातिगत भेदभाव जैसी गहरी सामाजिक सोच अब भी हमारे काम के माहौल को प्रभावित करती है। हालांकि इस पर बातचीत अभी शुरुआती दौर में है, लेकिन यह जरूरी है कि संस्थाएं इन बातों को समझें, ताकि वे एक समान, सुरक्षित और भागीदारी वाला माहौल बना सकें।

लैंगिक समानता की पहलों को बनाए रखना जरूरी

महिला कॉकस ने संस्था की नीतियों में बदलाव लाने में अहम भूमिका निभाई। लेकिन धीरे-धीरे इसकी बैठकों में नियमितता नहीं रही और पहले से बनी योजनाएं भी ठीक से लागू नहीं हो पाईं। इससे कुछ महिलाओं का इस प्लेटफॉर्म से भरोसा कम होने लगा। इसके लिए महिला लीडरशिप में शामिल सभी महिलाओं ने मिलकर इस पहल को फिर से मजबूती देने की शुरुआत की तथा महिला कॉकस को दोबारा सक्रिय करने की योजना बनाई। इसके लिए 2024 में किए गए अध्ययन पर चर्चा हुई और आगे की दिशा तय करने के लिए बाहरी विशेषज्ञों से सलाह भी ली गई। एक नया समूह बनाया गया जिसका उद्देश्य इस प्लेटफॉर्म के मकसद को स्पष्ट करना, नियम तय करना और इसे प्रभावशाली ढंग से लागू करने की रणनीति तैयार करना था।

इससे क्या सीख मिली

हालांकि यह प्रक्रिया अभी जारी है, लेकिन लगभग दस साल के अनुभव से संस्था के अंदर लैंगिक समानता पर काम करने को लेकर कुछ जरूरी बातें सामने आईं:

  1. लीडरशिप की भागीदारी जरूरी है: बैठकों में वरिष्ठ महिला लीडर्स की कम उपस्थिति के कारण, महिला कॉकस की जिम्मेदारी मुख्य रूप से युवा कर्मचारियों पर आ गई। किसी भी पहल को प्रभावशाली बनाने के लिए शुरुआत से ही सीनियर लीडरशिप की सक्रिय भागीदारी बेहद जरूरी होती है।
  2. संसाधन और योजना दोनों स्पष्ट हों: समन्वय टीम की बैठकें नियमित रूप से न होने के कारण प्लेटफॉर्म की सक्रियता और प्रभाव कमजोर पड़ गया। ऐसी पहलों को सफल बनाने के लिए एक स्पष्ट रणनीति, पर्याप्त संसाधन और प्रगति को मापने की एक मजबूत व्यवस्था जरूरी है, ताकि कामकाज की निगरानी प्रभावी ढंग से की जा सके।
  3. पुरानी सोच और ‘अच्छी मंशा’ को जांचना भी जरूरी है: लैंगिक भेदभाव सिर्फ नीतियों से नहीं, बल्कि व्यवहार से भी जुड़ा होता है। कई बार पुरुषों का सुरक्षा देने या देखभाल वाला व्यवहार भी भेदभाव से जुड़ा हो सकता है। परोपकारी लैंगिक भेद, जेंडर के आधार पर होने वाला भेदभाव है जिसमें तारीफों या सुरक्षा की बातों से महिलाओं को कमतर साबित किया जाता है। कार्यस्थल पर अक्सर सामाजिक शिष्टाचार या अच्छे इरादे से की गई बातों में ऐसा व्यवहार सामने आता है, जिसे पहचानना मुश्किल हो सकता है। ‘तुम्हें फील्ड वर्क नहीं दिया, तुम्हारी सेहत खराब हो जाएगी’, ‘महिलाओं के साथ थोड़ा विनम्र रहो’, ‘महिलाओं को मीटिंग में पहले बोलने दो’ आदि। इस तरह के व्यवहार पर खुलकर बात करनी और सबको सजग करना आवश्यक है।

किसी भी संस्था में लैंगिक समानता को बढ़ाने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति और संस्था का पूरा सहयोग जरूरी होता है। लेकिन, इसके लिए कर्मचारियों की बात सुनना और समय-समय पर नीतियों में जरूरी बदलाव करना भी जरूरी है। 

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें

अधिक जानें

  • जानिये, जेंडर इनिक्वालटी या लैंगिक असमानता क्या होती है?
  • जानें, महिला सशक्तिकरण की सबसे बड़ी बाधा बनने वाला पितृसत्तात्मक समझौता क्या है?
  • प्रदान की जेंडर ऑडिट प्रक्रिया के बारे में और जानें